एक पैगाम लखनऊ के नाम
- Arijit Bose
- Feb 14, 2017
- 3 min read

वो गंज की खूबसूरत शाम
यून कॉफी की चुस्की लेते हम आप और लोग तमाम
दुकानें सामने यून साझी के मानो लगी हो झाकियों और उन्हें देखते लोगों का जाम
पानी के फुहारे सड़क के इर्द गिर्द लगे जैसे हो राजाओं का शाही हमाम
सैर पे निकले प्रेमी जोड़ों के दिखते नखरे तमाम
ठंडे हवा के झोंके और लोगों के चहेल पहेल के बीच उभरती एक रंगीन शाम
इन्ही सब के बीच बैठे लिखता हूँ एक पैगाम लखनऊ के नाम
कहीं पर इमांबारे और रेसिडेन्सी की रंगत
कहीं पर माल की चार दीवारी के अंदर बच्चे बूढ़ों का जमघट
कहीं पर चका चौंड और कहीं पर गोमती के किनारे पर पनघट
कहीं पर यारों की यारी और कभी तन्हाई का संगत
सुबह और दोपहर धूप की गर्मी रात को तारों के तले शांत माहौल और सुनहरे सपनों की नर्मी
टाँगे की चाल,शरीफों का महकमा और कहीं कहीं पर बहरूपियों का जाल
आज गंज का उमरा हो चला मोरे तन 200 साल
ठंडे हवा के झोंके और लोगों के चहेल पहेल के बीच उभरती एक रंगीन शाम
इन्ही सब के बीच बैठे लिखता हूँ एक पैगाम लखनऊ के नाम
शहेर के लोगों की नज़ाक़त और तहज़ीब दुनिया को देती है एक मिसाल
शहेर की खुश्बू चारों दिशाओं में ऐसी फैलती मानो कोई गाज़ल गायक या हो कोई क़व्वाल
शहेर के रोम रोम में बसे हुए हैं उर्दू के गाज़ल और कविता लेखक बेमिसाल
ये शहेर जीने को मजबूर करती है चाहे कोई भी हो हाल
शहेर का नशा ऐसा है मुझपर की मौका परा तो बनूंगा एक ढाल
मुद्दत बीत गये पर इस शहेर ने ना बदली हवा और ना बदला अपनी चाल
यून हंसते गाते गुनगुनाते लखनऊ बन जाता और भी जवान हर साल
ठंडे हवा के झोंके और लोगों के चहेल पहेल के बीच उभरती एक रंगीन शाम
इन्ही सब के बीच बैठे लिखता हूँ एक पैगाम लखनऊ के नाम
इस शहेर ने दिए कितने फनकार
दूसरी तरफ यादगार नगमे और घुँगरुवं की झंकार
जीवन जीने का ढंग इस शहेर में यून है मानो कोई चमत्कार
ज़िंदगी जीने का नही है धीमा रफ़्तार
जो भी एक बार आता दोबारा लौट के आता बार बार
रिक्कशे ,ऑटो और बूसों पर सेक्रोन शहेर के बाशिंदे सवार
अब तो जल्द ही मेट्रो पर होंगे हम सभी सवार
कॉफी ख़तम कर खाते हमारे चार यार
बजा इस वक़्त शाम के चार बच्चों की टोली घूमती
यून मानो हो गये हों वो दिन के थकान से हार
ठंडे हवा के झोंके और लोगों के चहेल पहेल के बीच उभरती एक रंगीन शाम
इन्ही सब के बीच बैठे लिखता हूँ एक पैगाम लखनऊ के नाम
कोई देता छक के गाली
कहीं कही पर सन्नाटा रास्ते सुनसान घरों के झरोके खाली
कभी मंदिर मज़्ज़िद गिरजाघरों और गुरुद्वारे में श्रधालुओं की टोली
कहीं पर शरारती बच्चे बैठ चूस्ते चूरन की गोली
कहीं कहीं पर कोई आता ना साव्वाली
मंदिरों में औरतें भगवान को पूजती लेके पूजा की थाली
लखनऊ वोह शहेर है जिसकी हर बात है निराली
ठंडे हवा के झोंके और लोगों के चहेल पहेल के बीच उभरती एक रंगीन शाम
इन्ही सब के बीच बैठे लिखता हूँ एक पैगाम लखनऊ के नाम
कितने साल गुज़रे तेरी पनाह में तू लखनऊ तेरा इससे बेहतर ना कोई नाम
तू ही अल्लाह, तू ही ईसा मस्सी, तू ही वाहे गुरु और तू ही रामा
हम सब रहते हंस बोल के मिलता यहाँ पर बड़ा आराम
तुझ को चाहने वाले तुझे पुकारे चाहे दिन हो या शाम
तुम्हारे नाम हर पल याद करे जब भी पड़े कोई काम
दिल और दिमाग़ पे तू बस्ता है तुझे होने ना देंगे बदनाम
तुझमे जो डूबा उसने मानो घूमा चारो धाम
आज भी बैठे यही सोचता हूँ की लखनऊ है मेरा शहेर ना की कोई खाली जाम
ठंडे हवा के झोंके और लोगों के चहेल पहेल के बीच उभरती एक रंगीन शाम
इन्ही सब के बीच बैठे लिखता हूँ एक पैगाम लखनऊ के नाम
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