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सिर्फ़ नाम से ही नही, पर काम से भी शरीफ इंसान, जिसने लावारिस लाशों को इज़्ज़त दिलाई

  • Writer: Arijit Bose
    Arijit Bose
  • Jan 31, 2020
  • 2 min read
कभी ज़माने ने दिया पागल करार, आज उसी को नसीब हुआ पद्म सम्मान

एक ऐसे दौर में जब मज़हबी दरारें बढ़ती चली गयी हैं, उ.प. के शरीफ चाचा ने आज के ज़माने में एक अलग ही मुकाम हासिल किया है. पद्‍मश्री विजेता मोहम्मद शरीफ को कभी लोगों ने पागल कह के झुटला दिया था क्यूंकी वो लावारिस हिंदू और मुस्लिम लाशों को पंचतत्व में विलीन होने का मार्ग प्रशस्त करते थे. इस पावन कार्य को करते शरीफ चाचा को 27 साल हो गये.

आज जब वो 80 साल की उम्र में पद्म सम्मान से नवाज़े जाएँगे, तो फ़ैज़ाबाद के इस लाल की वाह वाही दूर दूर तक है. आज तक शरीफ चाचा का एक ही उसूल रहा है – क्या हिंदू, क्या मुसलमान, सबसे आगे इंसान. उन्होंने हमेशा इंसानियत को तवज्जो दी.

उन्होंने आज तक 3,000 हिंदुओं को सुपुर्दे खाक किया है और 1,500 मुसलमानों को शमशान में क़ब्र दिलाया है. हालाकी मीडिया की माने तो ये आँकरा तक़रीबन 25,000 है. इस अच्छे कार्य का सिलसिला 27 साल पहले तब उनके ज़हन में आया जब उनके अपने बेटे की लाश कटी हाल में एक रेलवे ट्रॅक पर उन्हें मिली थी, जिसे जानवरों ने नोच खाया था.

उन्होंने तभी मन बना लिया था की जिस तक़लीफ़ से वो गुज़रे, वो किसी और को झेलने नही देंगे. इत्तेफ़ाक़न जब ये बात उन्हें पता लगी की वो पद्मा सम्मान से नवाज़े जाएँगे, वो एक मज़ार को सॉफ कर रहे थे. उन्हें जिलाधिकारी ने हाथ पकड़ के बताया की वो इस सम्मान के हक़दार हैं और उन्हें एक गुलाब भी भेंट किया गया.

पेशे से साइकल ठीक करने वाले मेकॅनिक, शरीफ एक छोटे से रेंट के घर में रहते हैं. जब वो एक समय लाश को ढो के ले जाते तो बहुतों ने उन्हें ना केवल हँसी का पात्र बनाया, बल्कि उन्होंने पागल भी करार दिया. बहुत दिनों तक हँसी झेलने के बाद एक दौर ऐसा भी आया जब उन्ही के तरह सोच रखने वाले लाल बाबू, चाँद बाबू, पप्पू भय्या, पटेल बाबू, शरद भय्या और बहुतेरों ने उनकी ना केवल सराहना की, बल्कि उन्हें आगे बढ़ने का हिम्मत दिया.

प्रशासन ने उन्हें धनराशि तो नही दिलाई पर एक ऐसा जगह ज़रूर दिलाया जहाँ वो हिंदुओं को मुखाग्नि दे सकते. उन्होंने एक मृत देह को ढकने का प्रबंध भी किया.

शरीफ के दो बेटे हैं – शकील और अशरफ. तीसरा बेटा छे महीने पहले चल बसा. पत्नी को ऐसा झटका लगा की वो इस शोक से पूरी तरह उभर नही पाईं. चाचा को मीडिया इंटरव्यूस में कहते सुना गया है की मीडिया वालों ने ही उन्हें एक बेहतर छवि का इंसान बनाया जिससे लोग उनके काम को जान पाए.जिस रकाबगंज के तादवली ताकि सेमेट्री में लाशें रहती हैं वोहीं पर लिखा है लावारिस मय्यत/ मिट्टी का गुसलखाना. चाचा बराबर समय निकालते हैं की कैसे वो पोलीस स्टेशन्स, हॉस्पिटल्स, रेलवेस स्टेशन्स, मॉर्चुवरी सबसे जानकारी जुटा कर फिर लोगों की ज़िंदगी छू सकें. जब बहत्तर घंटों तक कोई आगे नही आता, तो वो क्रियाकर्म में मदद करते हैं. जैसे जैसे समय बीता जो लोग हंसते, वोही आज उन्हें इज़्ज़त भी बक्ष आगे आये हैं. संतोष, मोहम्मद इस्माईल और श्याम विश्वकर्मा और उन जैसे तमाम लोग अब उनका हाथ बटाते हैं.

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