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लखनऊ में मुट्ठीभर सब्ज़ी वालों ने उठाया संस्कृत को बचाने का ज़िम्मा

  • Writer: Arijit Bose
    Arijit Bose
  • Jun 13, 2019
  • 3 min read

संस्कृत जगत में बदलाओ का सपना देखने वाले ये सब्ज़ीवाले हर दिन इस प्राचीन भाषा को बचाने की लड़ाई लड़ रहे हैं.

संस्कृत को पढ़ना और पढ़ाना आजकल कहीं गुम सा हो गया है. देश में अँग्रेज़ी और हिन्दी ही जब सही से ना बोल पायें तो संस्कृत का धूमिल होना तो लाज़मी है बताते हैं निशातगंज के सब्ज़ी वाले, जिन्होने संस्कृत को प्रचलित करने का बीड़ा उठाया है.

निशातगंज सब्ज़ी बज़ार में 50 से 60 सब्ज़ी वाले अपना दुकान चलाते हैं. उनमे से तीन से पाँच दुकानदार ऐसे हैं जिन्होने देश में पहली बार एक ऐसा प्रयोग किया है जो सराहनीय है.

निशातगंज का सब्ज़ी बज़ार देश का पहला ऐसा सब्ज़ी बज़ार बन गया है जहाँ सब्ज़ी संस्कृत में बेची जा रही है.

बिकरीकर्ता और खरीददार हर दिन की तरह उस दिन भी अपना दिन यहाँ बिता रहे थे, जब मैं यहाँ स्टोरी करने गया. सब्ज़ीवालों के लिए अब खबरों में रहना आम बात है.

सब्ज़ीवाले बताते हैं की आठ से नौ मीडीया संस्थानों के पत्रकार आके उनसे अक्सर सवाल जवाब कर के गये हैं. उनका कहना है की उन्हे अच्छा लगता है खबरों में बने रहना लेकिन, संस्कृत की खुश्बू दूर तक फैलाना उनका मूल लक्ष्य है.

सन 60 से, अशोक और उनके कई साथी यहाँ पर अच्छा बिक्री कर रहे हैं. और लोग भी इनके पास बार बार आते हैं क्यूंकी अच्छी सब्ज़ी सही दाम पे उन्हें यहीं मिलती है.

कई वसंत यहाँ बिता चुके ये सब्ज़ी वाले हर दिन इसी उम्मीद से संस्कृत में बात करते हैं की संस्कृत को अपना पुराना सुनेहरा पहचान मिल सके और ज़माने के करवट लेते ही ये कहीं गुमनामी के कगार पे ना पहुँच जाए.

अशोक जैसे कई नौजवान संस्कृत को बढ़ावा देते हुए खुश हैं. उनके आँखों में एक अजीब चमक है इस प्राचीन भाषा को बोलते हुए. कई दुकानों में बोर्ड लगाया हुआ था, पर अब नही है क्यूंकी गर्मी में सब्ज़ी धोते वक़्त खराब हो जाते हैं. बज़ार में सब्ज़ी बेचते कुछ विक्रेता बताते हैं की एक शुक्ला जी थे जो आर्या कन्या विद्यालय से आए थे और उन्होने ही संस्कृत को बढ़ावा देने का ये अनूठा आइडिया दिया.

वो कहते हैं की बाकी वहान के लोगों ने बीड़ा उठा या उस पर काम करने का.

अशोक और उनके जैसे कई लोगों के लिए मसला ये है की जब देश में लोग अँग्रेज़ी और हिन्दी ही नही बोल पाते हैं तो संस्कृत को कैसे बढ़ावा मिले.

निशातगंज में ही कार्यरत नंदू सोनकर कहते हैं, “हमारा काम है की हम संस्कृत को बढ़ावा दें. हम अगर असफल रहे तो हम क्या कर सकते हैं.”

लोग जो अक्सर यहाँ आते हैं खुश हैं की संस्कृत बोलचाल का ज़रिया है. कुछ खुश हैं, तो कुछ मानते हैं की अभी बहुत वक़्त लगेगा इस पर लोगों को रिझा पाना. पर लोगों में बोलने का ख़ासा उत्साह दिखा.

खबरों में ये जगह बना तो हुआ है, पर कुछ ऐसे भी हैं जो अभी भी इस सब से अछूते हैं. जहाँ कुछ लोगों ने पब्लिसिटी स्टंट कह के बात को झुटला दिया है, सिकंदर कुमार गुप्ता मानते हैं की हम मातृभाषा को पल पल मरते नही देख सकते है. जब कोई अच्छी संस्कृत बोलता तो हम भी उनको सब्ज़ी खरीद पे डिसकाउंट देते हैं..”

गुजरात के वीरू सोनकर और उनका परिवार जो अपना काम यहाँ पर कर रहे हैं कहते हैं, “जैसे उर्दू, अँग्रेज़ी और हिन्दी ज़रूरी है, वैसे ही संस्कृत भी जानना अनिवार्या है, एक भारतीय के लिए. हमारे इस मुहीम का मक़सद है की हम कुछ करें जिससे इंसान यहाँ से लौट कर घर पे दो शब्द संस्कृत के भी बोले. लोगों में उत्साह है, पर सीखने की चाह नही.”

निशातगंज सब्ज़ी बज़ार अकेले एक ऐसा बेज़ार है जहाँ संस्कृत को बढ़ावा मिल रहा है. यहाँ पर आलू को आलूकं, टमाटर को रखतपलम, करेला को कर्वेलह, गाजर को गूंजनक्कम, लहसुन को लशुनाम. प्याज़ को पलांदूह , आद्रक को आद्राकम और मिर्ची को मिर्चिकं कहा जाता है.

पर पूरी बात को संक्षिप्त में कहते हुए, एक सज्जन, सटीक बात करते हैं. वो कहते हैं अगर हम जैसे अनपढ़ लोग संस्कृत समझ सकते हैं, तो समाज का पढ़ा लिखा वर्ग क्यूँ नही? हम कभी बी किसी पे थोप्ते नही इस भाषा को.

देश में एक राष्ट्र भाषा पे बहेस तब छिड़ गयी जब NCST ने संस्कृत को राष्ट्र भाषा बनाने की गुहार लगाई थी.

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