मैय्या का चोला है रंगला
- Arijit Bose
- Oct 13, 2016
- 2 min read

Ma Abar Ashben
दुर्गा की काया तो भव्य है ही लेकिन और भी बड़ी बात यह है की माँ आती है और जाती है शान से। दशहरा के चार दिन पूर्व हर पंडाल में अलग अलग समितियों ने माँ का आगमन किया और ११ तारिक को माँ ने अपने भक्तों की आँखें नाम कर ही दी, जब वोह अपने बच्चों के साथ धरती छोर अपने ससुराल चली गयी. पर उनकी विदाई के समागम के बारे में बात करें तो वाकई एक अद्भुत एहसास होता है। ट्रक में सम्मान पूर्वक माँ को लाना ढोल नगाढे के साथ झूमते लोग माँ की सवारी के साथ झूमते हुए। माँ के जयकारे और गणपति अगले साल तू फिर आ की गूँज जहाँ पुरे माहौल को आलौकिक बनाती वोही पटाके और गुलाल माहौल में चार चाँद लगा देते । बच्चे बूढ़े और जवान सब ढोल की थाप पर एक साथ झूमते। बंग्भाशियों का सिन्दूर से रंग चेहरा खिला होता है और कई समितियां का ढोल कम्पटीशन झुलेलाल घाट पर अपने आप में एक एक्सपीरियंस है जिसे आपको देख कर ही सुख है। जहां पूरा मीडिया एक रीती की तरह हर साल कवर करने आते हैं। हलाकि पुलिस छावनी दुरुस्त थी और प्रशासन के साथ पूरी तरह तरह लोगों ने कोआपरेट किया विसर्जन समिति और पूजा समिति के कुछ सदस्य समय समय पर रास्ता जाम , गोमती प्रदूषण एवं शांति बनाये रखने का माइक द्वारा गुहार लगा रहे थे। छोटी शेरो वाली की मूर्ती से ले कर के विराट काया वाली मूर्ति ने श्रद्धालुओं को एक आखरी बार माँ के चरणों में अपना श्रधा सुमन अर्पित करने का एक मौका दिया। जैसे ही कार्तिक,गणेश, लक्ष्मी और सरस्वती को बाइज्ज़त घाट पर ट्रक से उतार कर रखा गया, श्रधालुओं का एक बड़ा हुजूम वहाँ पर उनसे आशीर्वाद लेने पहुंचे। लखनऊ के झुलेलाल घाट में दस अलग विसर्जन स्थान हैं जहां से ना ना समितियां अपने मूर्ति को विसर्जित करते हैं। चाहे वोह आर्मी बैंड के साथ विसर्जन हो, लखा के गाने बजते हुए और दीपों से सजी झांकी के साथ विसर्जन हो या फिर पैदल आये भक्तों के हाथों में छोटी प्रतिमा हर एक को एक सूत्र में बांधती माँ की भक्ति। भगवन के इतने करीब फिर अगले साल हो सकेंगे इस्सी उम्मीद के साथ माँ को अलविदा कहना न केवल अच्छा लगा बल्कि छायांकन का भी मौका मिला। एक बात फिर भी खा जाती है की इतनी सुन्दर और इतनी शिद्दत से बनायीं प्रतिमा कैसे पानी में जाके माटी बन जाती है। महीनो की कड़ी मेहनत के बाद इस अद्भुद रूप को पानी में जाते देख अजीब लगा। इस लिए नहीं की माँ से बिछड़े बल्कि इस लिए की कभी कभी रीति की आड़ में हम कलाकारों के साथ बहुत अन्याय करते हैं। माँ तोह चली गयी, उनके साथ उन कलाकारों की कलाकारी भी साथ ले गयी, हमेशा के लिए नहीं तो कम से कम एक वर्ष के लिए। जानकारों का कहना है की हर साल मूर्तिकार दुर्गा पूजा के समय ही सबसे ज्यादा काम कर पैसा बनाते हैं। माना कलयुग है पर ऐसा कलयुग किस काम का।
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