एक प्राचीन कला जो महेज़ फिल्म की टाइटल बन के रेह गयी
- Arijit Bose
- Jun 28, 2019
- 4 min read

Courtesy – Sahapedia
एक ऐसे देश में जहाँ पर सिनिमा जगत के अलावा भी कई विधि विधायें है कला में, ऐसे में गुलाबो सीताबो को बचाने के लिए बुधी जीवियों को गहरा मंथन करना होगा । जिससे ये विरासत लुप्त ना हो जाए…..
लखनऊ शहर में आजकल बहुत धूम है। शहर में अमिताभ बच्चन अपने अगले फिल्म की शूटिंग कर रहे हैं। शूजीत सरकार की गुलाबो सीताबो जिसमे आयुष्मान खुराना भी उनके साथ काम कर रहे हैं । बच्चन अपने किरदार के लिए चर्चाओं में बने हुए हैं, पर अगर बात की जाए इस फिल्म के नाम की पृष्टभूमि की, तो इसका नाम प्राचीन गुलाबो सीताबो के कठपुतली कला पर आधारित है । एक ऐसी कला जो लखनऊ की २०० साल से भी ज़्यादा पुरानी विरासत है, पर अब उसके ना तो कद्रदान हैं, और ना ही वो कला दिखाने वाले । एक ऐसे समय में जब संचार के क्षेत्र में नित नये प्रयास किए जा रहे हैं, तो गुलाबो सीताबो की माँग घटी ही है बढ़ी नही । विगत कुछ वर्षों में कुछ चुनिंदे आयोजनों में कठपुतलियों के द्वारा स्थानिय कलाकारों ने रंग बिखेरा, पर इसकी असली चमक नवाबों के ज़माने में दिखती थी, जब उनके हरमों में इस कला से मनोरंजन प्रदान किया जाता था । गुलाबो सीताबो की अनूठी नोक झोक जो दो औरतों के बीच की कहानी है, पत्नी और सौतन के बीच की दास्तान बयान करती है । नवाब वाजिद अली शाह के समय से चली आ रही गुलाबो सीताबो की परंपरा UP के जिले जिले में मशहूर है । साल में एक बार कलाकार घूम घूम के इसको लोगो तक पहुँचते थे कुछ समय पहले तक । पर जानकार बताते हैं की नयी पीढ़ी को मनोरंजन के नये स्रोत मिलने से इस कला को ख़ासा झटका लगा है । कई स्थानिय कलाकारों को अपना कठपुतली खेल छोड़ दूसरे कमाई के साधन ढूँढने पड़े हैं । कलाकारों के एक समूह राज्य सरकार को आगा करता आया है की अपनी सांझी विरासत कहीं खो ना जाए । गुलाबो सीताबो दास्तानी रूपी कठपुतलियाँ हैं जो नाना रंग के, सुंदर कलाकृतियों वाले , चमकीले कपड़े पहने हुए और सुंदर आभूषण के साथ मिलते हैं । बहुत बार देखा गया है इस कठपुतली खेल में बोल के और गा कर सूत्रधार अपनी बात रखता है । अजीबोगरीबे मज़ाक, कुछ तीखी बातें और कुछ खिल्ली ठट्ठा इस पेशकश के अभिन्न अंग हैं। गुलाबो सीताबो की कहानी हमारे रोज़ मररा की जि़ंदगी के इर्द गिर्द घूमती है । ढोलक और मंजीरा के साथ ये कठपुतली खेल देख लोग मंत्रमुग्ध हो जाते हैं ।

Courtesy – TOI
इतिहास के जानकारों का मानना है की १८५७ में कठपुतलियों का इस्तेमाल देशप्रेम को बढ़ावा देने के लिए किया जाता था । साल १९६३ में लखनऊ के लिटरेसी हाउस में कठपुतली बनना शुरू हुई । इसी के ठीक बाद लोगों में इस कला को सीखने की इच्छा जागी । कई कलाकार यहाँ से पढक़े आगे चलकर सूचना विभाग, संस्कृति विभाग द्वारा आयोजित कार्यक्रमों में इस कला की खुश्बू बिखेरते रहे । लखनऊ और आस पास के इलाक़ों में गुलाबो सीताबो का नज़ारा त्योहारों में ज़्यादातर दिखता था. सतरवी सदी में जन्मी ये कला अब दम तोड़ रही है । इस नये युग में जब ज़माना माउस और कंप्यूटर में मनोरंजन ढूंढता है तो गुलाबो सीताबो और अन्य प्रकार के कठपुतली खेलों में फेर बदल भी किया गया है । कभी परंपराओं पर आधारित ये खेल अब हाल फिलहाल के ज्वलंत मुद्दों पर समाज को आएना दिखा कर एक संवाद स्थापित करने की चेष्ता करती है । रेडियो और टीवी के मध्यम से पढ़ा लिखा वर्ग इसी कोशिश में है की कैसे पप्पेट्री को एक नया मुकाम दिलाया जा सके । बच्चे जो कार्टून नेटवर्क, पोगो और निक देखना पसंद करते हैं उनके लिए भी पप्पेट के द्वारा कुछ सिखानेका प्रयास निरंतर जारी है । इसका सीधा उदाहरण है गली गली सिम सिम जो की विदेशों के सेसमी स्ट्रीट पर आधारित है । लखनऊ में वरिष्ट कलाकार मेराज आलम, उनकी सुपुत्री तान्या आलम, कठपुतली कलाकार प्रदीप त्रिपाठी, चंद्र शेखर शुकला, उमा शुकला और भूरेे मास्टर सबने अभूतपूर्व योगदान दिया इस कला को बढ़ावा देने में । ना केवल लखनऊ में, बल्कि देश में इसकी कलात्मकता को बरकरार रखने के लिए कई कलाकार प्रयत्न करते रहे हैं। जिनमे सुप्रसीध हैं – मेहेर रुस्तम कॉनट्रेकटर, सुरेश डट, दादी पुदुँजी, जी वेणु, TN.शंकरनथन, अनुरूपा रॉय, रामदास पध्य, राचेल मॅक बीन, र.न. शुकला, दिलीप चटर्जी, ब. सहाइ एवं कई अन्य नामचीं हस्तियाँ । समाज में जागरूकता बढ़ाने के भाओ से एनसीईआरटी ने भी कठपुतली को एक विषय के रूप में मान्यता दी । गुलाबो सीताबो का प्रदर्शन जो गावों व नगरों की गलियों से शुरू हुई, जैसे जैसे आधुनिक हवा चली इसकी लोकप्रियता कम होती चली गयी । कठपुतलियों का जि़क्र ना केवल महाभारत में है, बल्कि पाणिनी, तिरुवल्लुवर और पतंजलि ने भी अपने लेखनी में इस प्राचीन कला का ज़िक्र किया है । कठपुतली को नाना नामों से जाना जाता है उनमे से सबसे प्रचलित हैं -पुतुलनाच, पुतुलनच, पुतुलभाओना या पुतलभाओरिया । किसी भी देश के लिए उसकी कला, उसकी संस्कृति उसका गहना है और अगर वो ही दम तोडऩे लगे तो ये चिंता का विषय है । पत्रकारिता विभागों में पप्पेट्री और ट्रडीशनल मीडीया सिखाने वालों को इस पर शोध करना चाहिए की कैसे कठपुतली कलाकारों और उनकी कला को मीडीया के बदलते परिपेक्ष में मुख्यधारा से जोड़ा जा सके ।
Comments